पता है मेरे बिस्तर के किनारे जो अल्मारी है,
वो किताबों से, सफहों से भरी पड़ी है,
बड़े-बड़े शायरों की, अफसाना-निगारों की किताबें,
मीर, ग़ालिब, फैज़, फ़राज़, सब की किताबें..
जो भी देखता है वो फरमाइश करता है,
कभी, "फैज़ की कोई ग़ज़ल सुना दो"
तो कभी,"ग़ालिब का एक शेर सुना दो"
गुलज़ार और साहिर की भी फरमाइशें होती हैं..
मगर मैं कभी कोई ग़ज़ल, कोई नज़्म,
कोई भी मिसरा, मुकम्मल नहीं कर पता,
सुनने वाले सोचते हैं, कि मैं भूल गया शायद,
कि, "इतनी तवील ग़ज़ल कैसे याद रहेगी !"
मगर किसी को इल्म नहीं,
कि मैं कभी कोई नज़्म, कोई शेर,
कोई ग़ज़ल, कुछ भी पूरा नहीं पढ़ पता,
किसी भी कहानी के अंजाम तक नहीं पहुँच पाता,
कि हर इक किस्से में, हर इक मिसरे में,
मेरा वो सामान नज़र आता है, जो तुम्हारे पास पड़ा है,
वो गीत नज़र आते हैं, जो मैंने तुम्हारी ख़ातिर लिखे,
और वो पहले से मरासिम दिखते हैं, जो अब नहीं,
मगर मेरे बिस्तर के किनारे जो अल्मारी है,
वो किताबों से भरी पड़ी है..
#Delhi
28th Sept'2017