Monday 9 October 2017

अल्मारी



पता है मेरे बिस्तर के किनारे जो अल्मारी है,
वो किताबों से, सफहों से भरी पड़ी है,
बड़े-बड़े शायरों की, अफसाना-निगारों की किताबें,
मीर, ग़ालिब, फैज़, फ़राज़, सब की किताबें..
जो भी देखता है वो फरमाइश करता है,
कभी, "फैज़ की कोई ग़ज़ल सुना दो"
तो कभी,"ग़ालिब का एक शेर सुना दो"
गुलज़ार और साहिर की भी फरमाइशें होती हैं..
मगर मैं कभी कोई ग़ज़ल, कोई नज़्म,
कोई भी मिसरा, मुकम्मल नहीं कर पता,
सुनने वाले सोचते हैं, कि मैं भूल गया शायद,
कि, "इतनी तवील ग़ज़ल कैसे याद रहेगी !"
मगर किसी को इल्म नहीं,
कि मैं कभी कोई नज़्म, कोई शेर,
कोई ग़ज़ल, कुछ भी पूरा नहीं पढ़ पता,
किसी भी कहानी के अंजाम तक नहीं पहुँच पाता,
कि हर इक किस्से में, हर इक मिसरे में,
मेरा वो सामान नज़र आता है, जो तुम्हारे पास पड़ा है,
वो गीत नज़र आते हैं, जो मैंने तुम्हारी ख़ातिर लिखे,
और वो पहले से मरासिम दिखते हैं, जो अब नहीं,
मगर मेरे बिस्तर के किनारे जो अल्मारी है,
वो किताबों से भरी पड़ी है..

#Delhi
28th Sept'2017

Monday 18 September 2017

मैं अब शायरी नहीं लिखता




















मैं अब शायरी नहीं लिखता,
न किस्से-कहानियाँ, न अफ़साने,
कि मेरे अल्फ़ाज़ों का जो क़ासिद था,
वो ख़याल ही तो था तुम्हारा।
मेरी नज़्म, मेरी शायरी,
मेरे किस्से, मेरी कहानी,
सब तुमसे जो मुक़म्मल था,
वो निशान ही तो था तुम्हारा।

मैं अब शायरी नहीं लिखता,
न सफहों पे, न ज़हन में,
कि मेरे वस्ल का जो हाफ़िज़ था,
वो ताबीर ही तो था तुम्हारा।
मेरी रफ़्तार, मेरा जूनून,
मेरा इंतज़ार, मेरा सुकून,
सब तुमसे जो हासिल था,
वो लम्स ही तो था तुम्हारा।

हाँ तुम साथ हो अब भी मगर,
ये फासला एक दीवार का जो है दरमियाँ,
ये रक़ीब है हमारा।
बस शायद इसलिए,
मैं अब शायरी नहीं लिखता।

#Delhi
16-09-2017

Tuesday 2 May 2017

बेंच



मैं जब पहले-पहल तुम्हारे शहर आया था,
तो सब कुछ अलग, सब कुछ नया लगता था,
नए लोग, नयी ज़ुबान, नया घर, नया माहौल,
सब कुछ नया लगता था,
मग़र भीतर कहीं किसी कोने में इक एहसास था,
तुम्हारे क़रीब होने का, तुम्हारे पास होने का,
शायद इसी लिए इतनी दूर चला आया था |

शायद तुम्हें याद हो,
मेरे नए घर के सामने एक पार्क था,
मेरी शाम अक्सर वहीँ गुज़रती थी,
शायद कभी किसी दोस्त के साथ,
मगर अक्सर अकेले,
कभी टहलते, कभी फ़क़त गुज़रते वक़्त को देखते |

पार्क के कोने में एक बेंच थी,
मार्बल की थी शायद,
पीछे एक अकेला पेड़ और सामने बिखरे ज़र्द पत्ते,
मैं हमेशा उसी बेंच पर बैठा करता था,
और उन बिखरे पत्तों को देख कर,
अपने बीते वक़्त को याद किया करता था,
और जब कभी,
उन बिखरे पत्तों के बीच एक फूल दिख जाया करता,
तो ऐसा लगता,
कि शायद तुम भी कभी ऐसे ही दफ्फतन सामने आ जाओगी।

आज वो बिखरे पत्ते,
वो अकेला पेड़,
और पार्क में लगी बेंच,
सब याद आते हैं।

#Ghaziabad
02-05-2017

Sunday 14 August 2016

इंतजार


कल, रात बड़ी उदास थी..मैंने पूछा तो कहने लगी,
"क्या करोगे जान कर ? और क्या फ़ायदा बता कर ? न मैं बदल सकती हूँ और, बाक़ी कोई बदलेगा नहीं.."

मुझे चुप देख कर बोली,
"जानते हो, हर कोई मेरा इंतज़ार करता है..मगर इसलिए नहीं कि वो मुझे चाहते हैं, बल्कि इसलिए की दिन ढले और वो जिसे चाहते हैं उसके क़रीब पहुँच सकें..जो साथ हैं वो एक-दूसरे का लम्स चाहते हैं, जो दूर हैं वो बातों में मसरूफ़ हो जाते हैं..सब मेरा इंतज़ार करते हैं, किसी और का साथ पाने के लिए..मगर इस इंतज़ार में भी मैं इनका साथ देती हूँ..अब इस चाँद को ही देखो, कितना क़रीब है मेरे, मगर फिर भी इसे रोक कर नहीं रख पाती मैं, निकल जाता है कभी तारों संग-कभी बादलों के संग, और कभी तो एक दम गायब हो जाता है.."

"तन्हा महसूस नहीं होता कभी ?"
मैंने पूछा

"होता है कभी-कभी, जैसे आज..मगर मैंने सबके ग़म को अपना ग़म और उनकी ख़ुशी को ही अपनी ख़ुशी बना लिया है..वो जैसे दो प्यार करने वालों में होता है न, वैसे..".."या फिर कभी-कभी तुम जैसा खोया हुआ कोई आ कर बैठ जाता है पहलू में...", रात ने मुस्कुरा कर कहा

"सच कहूँ, मैं भी किसी का इंतज़ार कर रहा था"

"जानती हूँ !"

"मगर मैं और जानना चाहता हूँ, और सुनना...", तभी दूर कहीं से चिड़ियों की चहचहाट आयी और आया आहिस्ता-आहिस्ता रोशनी बिखेरता शम्स..फिर किसी ने कुछ नहीं कहा, हमारी खामोशियों ने अलविदा कहा और बस एक-दूसरे पहलू में बैठे हुए, हम वक़्त को, इंतज़ार को, बहते देखते रहे..


#Ghaziabad
08-08-2016

Sunday 10 January 2016

पुलिन्दे




कोने में, कुछ इक पुलिन्दे पड़े थे ख़तों के,
और साथ पड़ी थीं कुछ यादें, कुछ एहसास,
वहीँ बगल में इक खिड़की खुलती थी,
जिसके सामने मेरी मेज़ पड़ी थी,
हर रोज़ उस खिड़की से मैं,
तुम्हे आते देखा करता था,
तुम हल्की मुस्कराहट पहने,
नज़रें ज़मीं पर गड़ाए आती थीं,
और शायद ये आँखों का धोखा था,
या तुम इक पल को नज़र उठाती थीं,
फिर मेरी नज़रों से ओझल हो जाती थीं..
मैं फिर शाम के इंतज़ार में,
तुम्हारे नाम ख़त लिखा करता था,
लिख कर उसी पुलिंदे में रख दिया करता था..

शाम को फिर मैं,
उस खिड़की की चौखट पर,
सर रख कर बैठ जाया करता था,
और आहिस्ता-आहिस्ता तुम फिर,
मेरी नज़रों से ओझल हो जाती थीं..

मैं आज भी उस मेज़ पर अक्सर,
कुछ टुकड़े सफ़होँ के ले कर बैठ जाता हूँ,
ये सोच कर, के शायद किसी रोज़ तुम,
फिर वही मुस्कराहट पहने,
नज़रें ज़मीं पर गड़ाए,
उस पगडंडी से गुज़रोगी,
और मैं शाम के इंतज़ार में,
तुम्हे फिर से ख़त लिखूँगा..


#Lakhimpur-Kheri
9th January'16

Friday 2 October 2015

तसव्वुर




यही ज़मीं है, यही आसमाँ है,
दोज़ख यहीं है, जन्नत यहाँ है..


यही इश्क़ है, यही गिला है,
खामोशी यहीं है, यहीं सदा है..


यही वक़्त है, यही वेकराँ है,
अधूरा यहीं है, तक़मील यहाँ है..


जो कर सको हासिल इसे,
तो यही मुक़म्मल जहाँ है..


#Lakhimpur-Kheri
30th Sept'15

Sunday 9 August 2015

मॉनसून




मुझे याद है,
बारिश में खेलते हुए तुम्हें,
उस रोज़ जब हिचकी आई थी,
बेचैन हो उठी थी तुम कैसे,
और मैंने चिढ़ाया था,
"कोई याद कर रहा है तुम्हें"

आज बारिश की बूंदों ने छुआ है,
तो सोचता हूँ तुम्हें बता दूँ,
कि वो एक हिचकी,
जो तुम्हें रोज़ आती है,
वो मेरी गलती है..

#Lakhimpur-Kheri
8th Aug'15


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