सारे जहाँ की मसरूफियत के चंगुल से छूटे तो शूऊर खुद ही दौड़ने लग गया, मरता क्या ना करता, आना ही पड़ा फिर से...अकेले बैठ कर चाय की चुस्कियां लेते हुए, बीते दिनों को याद करने की बात ही अलग होती है...और फिर हम भी खुद को तुर्रम खां समझते थे, कि अजि क्या मजाल जो कभी जज्॒बाती हो जाएँ किसी बात पर...पर शायद वक़्त ने सब बदल दिया, हमें भी और खुद को भी..
तब चाय के दौर भी खूब चला करते थे,
उधारी के मौसम में, जेब खाली,
मगर पेट भरा रहा करते थे..
किसे फ़िक्र रहती कल के पर्चे की,
बस खातूनों के चर्चे चला करते थे..
ये तेरी भाभी-वो मेरी कह कर,
बस रिश्ते बना करते थे..
वक़्त वो ठहर जाये वहीँ,
हर रोज़ दुआ किया करते थे..
पर वक़्त का तक़ाज़ा कुछ और था और तकदीर को मंज़ूर कुछ और ही..तो खैर बस अपने यारों को याद करते-करते आज आँखें नम हो ही गयीं..मगर एक उम्मीद के साथ..
फिर से यारों की वो महफ़िल होगी,
फिर से ज़िन्दगी ज़िंदादिल होगी,
यही सोचता,
गिरता-संभालता,
वक़्त से लड़ता,
चला जा रहा हूँ,
यही सोचता,
फिर से यारों की वो महफ़िल होगी...
वो मेरे यार भी इंतज़ार करते होंगे,
मेरी तरह वो भी बेचैन रहते होंगे,
ख्वाहिश मिलने की दिल में दबाये,
वो भी बेकरार रहते होंगे,
सोचते होंगे,
कभी तो ज़रूर जियेंगे उन लम्हों को,
और खुद से कहते होंगे,
फिर से शाम जवाँ होगी,
फिर से यारों की वो महफ़िल होगी...
#25th August
Lakhimpur-Kheri