मैं अब शायरी नहीं लिखता,
न किस्से-कहानियाँ, न अफ़साने,
कि मेरे अल्फ़ाज़ों का जो क़ासिद था,
वो ख़याल ही तो था तुम्हारा।
मेरी नज़्म, मेरी शायरी,
मेरे किस्से, मेरी कहानी,
सब तुमसे जो मुक़म्मल था,
वो निशान ही तो था तुम्हारा।
मैं अब शायरी नहीं लिखता,
न सफहों पे, न ज़हन में,
कि मेरे वस्ल का जो हाफ़िज़ था,
वो ताबीर ही तो था तुम्हारा।
मेरी रफ़्तार, मेरा जूनून,
मेरा इंतज़ार, मेरा सुकून,
सब तुमसे जो हासिल था,
वो लम्स ही तो था तुम्हारा।
हाँ तुम साथ हो अब भी मगर,
ये फासला एक दीवार का जो है दरमियाँ,
ये रक़ीब है हमारा।
बस शायद इसलिए,
मैं अब शायरी नहीं लिखता।
कि मेरे अल्फ़ाज़ों का जो क़ासिद था,
वो ख़याल ही तो था तुम्हारा।
मेरी नज़्म, मेरी शायरी,
मेरे किस्से, मेरी कहानी,
सब तुमसे जो मुक़म्मल था,
वो निशान ही तो था तुम्हारा।
मैं अब शायरी नहीं लिखता,
न सफहों पे, न ज़हन में,
कि मेरे वस्ल का जो हाफ़िज़ था,
वो ताबीर ही तो था तुम्हारा।
मेरी रफ़्तार, मेरा जूनून,
मेरा इंतज़ार, मेरा सुकून,
सब तुमसे जो हासिल था,
वो लम्स ही तो था तुम्हारा।
हाँ तुम साथ हो अब भी मगर,
ये फासला एक दीवार का जो है दरमियाँ,
ये रक़ीब है हमारा।
बस शायद इसलिए,
मैं अब शायरी नहीं लिखता।
#Delhi
16-09-2017