ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो,
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी,
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन,
वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी...
सुन कर आगे तो बढ़ गया पर वो ग़ज़ल बचपन की याद ज़रूर दिला गयी...बेफिक्री के वो दिन, मस्ती की वो शामें, दोस्तों का साथ, माँ की डांट, घर का खाना, और भी ना जाने कितनी सारी बातें...सच, शायद उस बचपन के लिए आज अपनी खुद की चुनी हुई इस ज़िन्दगी को भी भुला सकते हैं हम..
एक वक़्त,
पगडंडियों से गुज़र जाते थे,
भर कर कुलाँचें,
पेड़ों पर चढ़ जाते थे,
खेल खेलते लुका-छिपी का,
शाम को वापस घर जाते थे...
दोस्तों के संग साइकिल पर,
देखे ना जाने कितने ही रंग,
हर सन्डे को भी तब,
दिवाली की तरह मनाते थे...
समोसे, कुल्फी और कचोरी में ही,
सारे सुख मिल जाते थे,
ले कर नोट दस रूपये का,
बेफिक्र घूम कर आते थे...
चढ़ अब्बा के काँधे पर,
मेला देखने जाते थे,
खेल देख कर जादू का,
ताली तब खूब बजाते थे,
मजाल निशानेबाज़ी में,
जो कभी मात खाते थे...
ज़िद भी कर लिया करते थे तब,
और अपनी बात मनवाते थे,
कभी हाथ में नया खिलौना,
तो कभी डांट भी खाते थे...
ढलते-ढलते हर शाम तब,
दादी की गोद में घुस जाते थे,
सुन कर किस्से दादाजी के.
चैन की नींद सो जाते थे...
अब वक़्त,
बदल गया लगता है,
हाथ का खिलौना टूट गया लगता है,
वो किस्सा, वो कहानी कहीं छूट गया लगता है,
पतंग की उस डोर में,
ये शायर उलझ गया लगता है,
जी तो करता है बहुत सुलझाने का,
वो सिरा मगर खो गया लगता है...