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Tuesday, 2 May 2017

बेंच



मैं जब पहले-पहल तुम्हारे शहर आया था,
तो सब कुछ अलग, सब कुछ नया लगता था,
नए लोग, नयी ज़ुबान, नया घर, नया माहौल,
सब कुछ नया लगता था,
मग़र भीतर कहीं किसी कोने में इक एहसास था,
तुम्हारे क़रीब होने का, तुम्हारे पास होने का,
शायद इसी लिए इतनी दूर चला आया था |

शायद तुम्हें याद हो,
मेरे नए घर के सामने एक पार्क था,
मेरी शाम अक्सर वहीँ गुज़रती थी,
शायद कभी किसी दोस्त के साथ,
मगर अक्सर अकेले,
कभी टहलते, कभी फ़क़त गुज़रते वक़्त को देखते |

पार्क के कोने में एक बेंच थी,
मार्बल की थी शायद,
पीछे एक अकेला पेड़ और सामने बिखरे ज़र्द पत्ते,
मैं हमेशा उसी बेंच पर बैठा करता था,
और उन बिखरे पत्तों को देख कर,
अपने बीते वक़्त को याद किया करता था,
और जब कभी,
उन बिखरे पत्तों के बीच एक फूल दिख जाया करता,
तो ऐसा लगता,
कि शायद तुम भी कभी ऐसे ही दफ्फतन सामने आ जाओगी।

आज वो बिखरे पत्ते,
वो अकेला पेड़,
और पार्क में लगी बेंच,
सब याद आते हैं।

#Ghaziabad
02-05-2017

Sunday, 10 January 2016

पुलिन्दे




कोने में, कुछ इक पुलिन्दे पड़े थे ख़तों के,
और साथ पड़ी थीं कुछ यादें, कुछ एहसास,
वहीँ बगल में इक खिड़की खुलती थी,
जिसके सामने मेरी मेज़ पड़ी थी,
हर रोज़ उस खिड़की से मैं,
तुम्हे आते देखा करता था,
तुम हल्की मुस्कराहट पहने,
नज़रें ज़मीं पर गड़ाए आती थीं,
और शायद ये आँखों का धोखा था,
या तुम इक पल को नज़र उठाती थीं,
फिर मेरी नज़रों से ओझल हो जाती थीं..
मैं फिर शाम के इंतज़ार में,
तुम्हारे नाम ख़त लिखा करता था,
लिख कर उसी पुलिंदे में रख दिया करता था..

शाम को फिर मैं,
उस खिड़की की चौखट पर,
सर रख कर बैठ जाया करता था,
और आहिस्ता-आहिस्ता तुम फिर,
मेरी नज़रों से ओझल हो जाती थीं..

मैं आज भी उस मेज़ पर अक्सर,
कुछ टुकड़े सफ़होँ के ले कर बैठ जाता हूँ,
ये सोच कर, के शायद किसी रोज़ तुम,
फिर वही मुस्कराहट पहने,
नज़रें ज़मीं पर गड़ाए,
उस पगडंडी से गुज़रोगी,
और मैं शाम के इंतज़ार में,
तुम्हे फिर से ख़त लिखूँगा..


#Lakhimpur-Kheri
9th January'16

Sunday, 9 August 2015

मॉनसून




मुझे याद है,
बारिश में खेलते हुए तुम्हें,
उस रोज़ जब हिचकी आई थी,
बेचैन हो उठी थी तुम कैसे,
और मैंने चिढ़ाया था,
"कोई याद कर रहा है तुम्हें"

आज बारिश की बूंदों ने छुआ है,
तो सोचता हूँ तुम्हें बता दूँ,
कि वो एक हिचकी,
जो तुम्हें रोज़ आती है,
वो मेरी गलती है..

#Lakhimpur-Kheri
8th Aug'15


Friday, 1 May 2015

पेन्टिंग

एक नदी बह रही थी बैकग्राउंड में,
मदहोश अपनी रफ़्तार में..
किनारे पर कुछ दरख़्त खड़े थे,
ग़ुरूर दिल में लिए..
अब्र चल रहे थे फलक पर,
जुनूँ की आगोश में..
शम्स चढ़ रहा था उफ़क़ पर,
सेहर की दस्तक लिए..

और, कैनवस के बीच,
तुम खड़ी थीं,
कुछ उलझे से जज़्बात लिए..

वो तस्वीर,
आज भी टंगी है दीवार पे,
मगर अब,
न पहले सी धूप है,
न पहले सी छाँव है,
आसमाँ बदल गया लगता है,

वक़्त बदल गया लगता है..


#Lakhimpur-Kheri
2nd March

Tuesday, 17 March 2015

एक कप चाय

"कितने साल हो गए ?"
"तीन साल, ऑलमोस्ट !"
"तीन साल, कैसे गुज़र गए, पता ही नहीं चला..."
"हम्म.."

"तुम्हारा 'हम्म' आज भी ज़िंदा है !! बिलकुल नहीं बदले तुम ! "
"बिलीव मी, बहुत ट्राई किया मगर.."
"अच्छा, चाय नहीं पिलाओगे ?"
"हम्म..लेमन टी, एक चम्मच शक्कर..लाता हूँ "
"यू स्टिल रिमेम्बर ! और तुम लेमन टी कब से..."
"चाय ही तो है ! "


उसके बाद चाय की चुस्कियों में ही, खामोशी ने सब कह दिया, सब सुन लिया..कप से उठती भांप के जैसे, फिर वो कन्वर्सेशन भी गुम गया..दो आधे पूरे-खाली से प्याले, कुछ बुझते रिश्तों की राख और फ़क़त एक वक़्फ़ा रह गया दरमियाँ..

माज़ी के समंदर में लहरें जब टकराती हैं,
साहिलों पे लम्हों की रेत बिखर जाती है..
मुस्कुराहटों की सीपियाँ उसमें से चुन लेते हैं,
यादों में पिरोके उनका हार फिर बुन लेते हैं..
बिखर न जाये टूट कर कहीं,
गोशा-ऐ-ज़हन में लिहाज़ा कैद कर देते हैं..

माज़ी के समंदर में लहरें जब टकराती है..



#Lakhimpur-Kheri
15-03-2015

Friday, 30 January 2015

यूँ ही कभी..


अक्सर मैं,
उस कुतबे पर फूल रख आता हूँ,
कभी वक़्त भी गुज़ारता हूँ,
इंतज़ार करता हूँ,
तुम्हारा इंतज़ार करता हूँ..
फिर, खुद में लौट जाता हूँ,
इक इंतज़ार को समेटे हुए..

जानता हूँ, इक अरसा गुज़र गया है,
कुछ कहे हुए, कुछ सुने हुए..

मगर, कभी आना,
उस मरासिम के मक़बरे की जानिब,
बैठेंगे, बातें करेंगे..


#30th January
Lakhimpur-Kheri

Monday, 25 August 2014

नमी..


सारे जहाँ की मसरूफियत के चंगुल से छूटे तो शूऊर खुद ही दौड़ने लग गया, मरता क्या ना करता, आना ही पड़ा फिर से...अकेले बैठ कर चाय की चुस्कियां लेते हुए, बीते दिनों को याद करने की बात ही अलग होती है...और फिर हम भी खुद को तुर्रम खां समझते थे, कि अजि क्या मजाल जो कभी जज्॒बाती हो जाएँ किसी बात पर...पर शायद वक़्त ने सब बदल दिया, हमें भी और खुद को भी..

                         तब चाय के दौर भी खूब चला करते थे,
                         उधारी के मौसम में, जेब खाली,
                         मगर पेट भरा रहा करते थे..
                         किसे फ़िक्र रहती कल के पर्चे की,
                         बस खातूनों के चर्चे चला करते थे..
                         ये तेरी भाभी-वो मेरी कह कर,
                         बस रिश्ते बना करते थे..
                         वक़्त वो ठहर जाये वहीँ,
                          हर रोज़ दुआ किया करते थे..

पर वक़्त का तक़ाज़ा कुछ और था और तकदीर को मंज़ूर कुछ और ही..तो खैर बस अपने यारों को याद करते-करते आज आँखें नम हो ही गयीं..मगर एक उम्मीद के साथ..

                         फिर से यारों की वो महफ़िल होगी,
                         फिर से ज़िन्दगी ज़िंदादिल होगी,
                         यही सोचता,
                         गिरता-संभालता,
                         वक़्त से लड़ता,
                         चला जा रहा हूँ,
                         यही सोचता,
                         फिर से यारों की वो महफ़िल होगी...

                         वो मेरे यार भी इंतज़ार करते होंगे,
                         मेरी तरह वो भी बेचैन रहते होंगे,
                         ख्वाहिश मिलने की दिल में दबाये,
                         वो भी बेकरार रहते होंगे,
                         सोचते होंगे,
                         कभी तो ज़रूर जियेंगे उन लम्हों को,
                         और खुद से कहते होंगे,
                         फिर से शाम जवाँ होगी,
                         फिर से यारों की वो महफ़िल होगी...
















                            #25th August
                             Lakhimpur-Kheri

Saturday, 25 January 2014

वो शाम मुसलसल है..


पेशानी पर पड़ी वो लकीरें,
रुखसारों पर आ गिरी हैं..
चेहरे पर ढलकी हुई ज़ुल्फ़ें अब,
कानों के पीछे ही गुँथी रहती हैं..
वो पलकें जो झुकी रहती थीं,
अक्सर बंद सी रहती हैं..
लबों पर बिखरी हुई मुस्कुराहट,
लबों में ही उलझी रहती है..

कितने ही दफ़े,
आईने को कहते सुना है के,
"एक वक़्फ़ा बीत गया है",
मगर यकीन नहीं आता..

कि उस लम्स की ख़ुशबू गयी नहीं है,
आज भी महकती है साँसों में..
वो शाम आज भी ढली नहीं है,
मुसलसल है एहसासों में..

#25th January
Bangalore

Saturday, 21 December 2013

आदतें


आजकल, बड़ी मशक्कत लगती है,
हर्फ़ तलाशने में,
तुम्हें तो एहसास होगा?
देर रात गुफ्तगू की आदत जो छूट गयी है..
मुझे याद है, 
तब पलकें कुछ कम भारी हुआ करती थीं,
शायद इसीलिए आजकल,
रातें भी तवील लगने लगी हैं..
घड़ी के कांटे भी जो नेज़े से मालूम पड़ते थे,
कैसे तेजी से सेहर की ओर उड़ते थे,
वक़्त भी शायद इसीलिए, 
दफ्फतन ज्यादा लगने लगा है..

मगर तुम फ़िक्र मत करना,
मैंने घड़ी पहनना छोड़ दिया है,
आजकल जल्दी सोने लगा हूँ..

#19th December
Bangalore


Tuesday, 26 November 2013

नज़्म



याद है, कैसे उस रोज़,
तुमने मेरा हाथ पकड़ कर कहा था,
"काट दो आज की शाम मेरे पहलू में",
कैसे ज़िद करी थी तुमने,
अपनी तारीफ़ सुनने की,
और कैसे मज़ाक बनाया था मैंने तुम्हारा.. 

आज किताब में तुम्हारा एक फ़ोटो मिला है,
फिर एक शायर जागा है,
फिर से एक नज़्म याद आयी है..


#17th November
Bangalore


Saturday, 16 November 2013

इंतज़ार


अनबूझे सवाल,
अनकहे जवाब,
रही खामोश ज़ुबान...


कागज़ पर स्याही के छींटे,
दीवार की दरारें,
दरीचें...


किताब के बीच रखा गुलाब,
अश्कों का वो आखरी सैलाब...


मेरे तरफ की करवट,
चादर पर पड़ी सलवट..


हैं बेतरतीब सब उसी तरह,
इंतज़ार है इन्हें आज भी तेरे एहसास का...

Wednesday, 13 November 2013

धुँधलका



कहते हैं यादों की सलवटें मिटाने के लिए वक़्त की लांड्री की ज़रूरत होती है..अक्सर तो ये सलवटें मिट जाती हैं पर कभी-कभी अपने पीछे कुछ निशाँ भी छोड़ जाती हैं..हमारी ज़िन्दगी में कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें न तो हम भूलना चाहते हैं, और न ही याद रखना चाहते हैं..भूलना इसलिए नहीं चाहते क्यूंकि वो बातें, वो यादें हमारे गुज़रे हुए खूबसूरत पलों की हैं, और याद इसलिए नहीं रखना चाहते क्यूंकि हम जानते हैं की वो बातें अब फिर कभी नहीं होंगी..मगर यहाँ सवाल शायद ये है की क्या वो बातें, जिनकी गूँज आज तक हमारे ज़हन में है, जिनके निशाँ आज भी जिंदा हैं, क्या हम उन्हें इतनी आसानी से भुला पायेंगे, और क्या हम उन खूबसूरत पलों को भूल कर खुश रह पाएंगे..शायद इस सवाल का जवाब हमारे अन्दर ही है, बस ज़रूरत है खुद से पूछने की..

                                                     पीले हो चले पन्ने अब,
                                                     स्याही भी कुछ धुंधला सी गयी है,
                                                     देखो यादों के खोशों पर, धूल कितनी जम गयी है,
                                                     गरदूले सफहों पर, परत-दर-परत कितनी पड़ गयी हैं..
                                                     
                                                     आओ, आकर झाड़ दो इक बार इन्हें,
                                                     मिल जाये क्या पता वो हँसी जो गुम गयी है..
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