आधे-अधूरे,
ज़िन्गदी ने हज़ार मिसरे उछाले मेरी जानिब,
तुमने तरानों में उनको तब्दील कर दिया..
न कुछ पूछा, न कुछ कहा,
फ़क़त समझा,
मुझको, और मेरे जहाँ को..
अब इल्म हुआ,
कि तन्हा रहना इतना भी बेज़ार नहीं,
अदावतें कुछ कम होती हैं,
रंजिशें भी नहीं होती हैं..
फ़क़त हम होते हैं,
हमारी तसव्वुर, हमारी सदा होती है..
#30th October
Lakhimpur-Kheri