ख़ानाबदोश
अब सोचता हूँ समेट कर रख लूँ ज़र्द पत्ते लम्हों के..हर पतझड़ में बिछते जाते हैं यादों के दरख़्त तले !!
Wednesday 14 January 2015
अंज़ाम
ज़हन में भटकी बहुत थी वो,
बार गिरी कई थी,
लड़ी भी बहुत थी वो,
फिर छटपटाई भी देर तक थी..
अल्फ़ाज़-दर-अल्फ़ाज़ रदीफ़ खोते गए,
आहिस्ता-आहिस्ता काफ़िये तहलील होते गए,
ख़ामोशी-ऐ-तवील के फिर हाशिये खिंच गये..
और एक नज़्म यूँ घुट कर बेसुध हो गयी..
#13th January
Lakhimpur-Keri
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