कोने में, कुछ इक पुलिन्दे पड़े थे ख़तों के,
और साथ पड़ी थीं कुछ यादें, कुछ एहसास,
वहीँ बगल में इक खिड़की खुलती थी,
जिसके सामने मेरी मेज़ पड़ी थी,
हर रोज़ उस खिड़की से मैं,
तुम्हे आते देखा करता था,
तुम हल्की मुस्कराहट पहने,
नज़रें ज़मीं पर गड़ाए आती थीं,
और शायद ये आँखों का धोखा था,
या तुम इक पल को नज़र उठाती थीं,
फिर मेरी नज़रों से ओझल हो जाती थीं..
मैं फिर शाम के इंतज़ार में,
तुम्हारे नाम ख़त लिखा करता था,
लिख कर उसी पुलिंदे में रख दिया करता था..
शाम को फिर मैं,
उस खिड़की की चौखट पर,
सर रख कर बैठ जाया करता था,
और आहिस्ता-आहिस्ता तुम फिर,
मेरी नज़रों से ओझल हो जाती थीं..
मैं आज भी उस मेज़ पर अक्सर,
कुछ टुकड़े सफ़होँ के ले कर बैठ जाता हूँ,
ये सोच कर, के शायद किसी रोज़ तुम,
फिर वही मुस्कराहट पहने,
नज़रें ज़मीं पर गड़ाए,
उस पगडंडी से गुज़रोगी,
और मैं शाम के इंतज़ार में,
तुम्हे फिर से ख़त लिखूँगा..
#Lakhimpur-Kheri
9th January'16
Khoobsurat. :)
ReplyDeleteBohot shukriya Ashna :-)
DeleteAwesome Abhishek.. very well written.. loved it
ReplyDeleteThank you so much Nimit Sir :-)
DeleteAwesome!
ReplyDeleteAwesome!
ReplyDeleteThank you so much Puneet :)
Deleteबहुत खूब लिखते है आप , अलिखन क्यों छोड़ दिया???
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